UPSC Essay रणनीति 2025 – UPSC परीक्षा में निबंध टॉपिक का चयन किस प्रकार हो?
UPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा 2025 प्रश्न पत्र I निबंध (Essay) की आयोजन तिथि 22 अगस्त है। UPSC निबंध प्रश्न पत्र में सफलता प्राप्त करने हेतु अभ्यर्थी के लिए आवश्यक हो जाता है कि वे स्मार्ट टॉपिक चयन, त्वरित योजना एवं सुव्यवस्थित लेखन शैली को अपनाएँ।
प्रस्तावना: यूपीएससी निबंध
UPSC सिविल सेवा मुख्य परीक्षा 2025 के प्रश्नपत्र I (निबंध) की परीक्षा 22 अगस्त (शुक्रवार) को निर्धारित है, अतः अभ्यर्थी के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह निबंध लेखन में स्वयं को यथासंभव कुशल बनाए। एक सजग अभ्यर्थी इस तथ्य से अवगत होता है कि सफलता उत्तर लेखन प्रारंभ करने से पूर्व ही सुनिश्चित हो जाती है— इस क्रम में आवश्यकता होती है, सहज टॉपिक चयन, त्वरित एवं प्रभावी योजना, एवं एक सुव्यवस्थित-संतुलित दृष्टिकोण की। इस गाइड में स्पष्टतः उल्लेख किया गया है कि UPSC निबंध में अधिक-स्कोर सुनिश्चित हो, उसके लिए टॉपिक चयन, आवश्यक योजना निर्धारण और सुव्यवस्थित दृष्टिकोण को किस प्रकार अपनाया जाए।
UPSC का निबंध प्रश्न पत्र मात्र लेखन कौशल की परीक्षा नहीं — अपितु यह निर्णय क्षमता, समय प्रबंधन और रणनीतिक सोच की भी परीक्षा है। लेखन निस्संदेह महत्वपूर्ण है, किंतु सबसे निर्णायक क्षण वह होता है जब आप एक भी शब्द लिखने से पूर्व टॉपिक का चयन करते हैं।
एक सजग अभ्यर्थी जानता है कि टॉपिक का चयन ही निबंध की दिशा और प्रभाव का निर्धारण करता है — आप कितने उपयुक्त उदाहरणों का प्रयोग कर सकते हैं, कितनी आत्मविश्वास पूर्वक आप 1100 से अधिक शब्दों तक अपने तर्क को बनाए रख सकते हैं, और क्या आप स्वयं को एक संतुलित, विचारशील तथा भावी सिविल सेवक के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।”
इस ब्लॉग का उद्देश्य आपको इस तथ्य से अवगत कराना है कि आप किस प्रकार सहज टॉपिक का चयन करें, प्रारंभिक महत्त्वपूर्ण मिनटों में इसकी योजना कैसे बनाई जाए, और एक शोध-समर्थित, प्रभावशाली ढांचे का उपयोग करके इसे कैसे लिखा जाए — इसके पश्चात् हम ‘छाया और वृक्ष’ विषय ( “आज कोई छाया में बैठा है क्योंकि किसी ने बहुत पहले एक वृक्ष लगाया था” ) को एक आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करेंगे।
चरण 1: प्रारंभिक 10 मिनट का नियम
यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि बिना पूर्व-योजना के सीधे लेखन प्रारंभ कर देना प्रायः निबंध को सतही बना देता है। परीक्षा में उपलब्ध प्रारंभिक 8 से 10 मिनट के समय का उपयोग लेखन नहीं, अपितु विचारों को काग़ज़ पर व्यवस्थित रूप से उकेरने के लिए किया जाना चाहिए।
इन शुरुआती मिनटों में निम्नलिखित कार्य करें:
- प्रत्येक टॉपिक को दो बार पढ़ें – पहली बार एक सामान्य समझ विकसित करने के लिए, एवं दूसरी बार उसकी सूक्ष्मता को पकड़ने के लिए।
- मुख्य शब्दों पर गोला लगाएँ – ये थीम की मूल दिशा को इंगित करने वाले संकेत-चिह्न हैं।
- त्वरित विचार लिखें – उपमाएँ, प्रासंगिक उदाहरण, नीतियाँ, ऐतिहासिक सन्दर्भ आदि संक्षेप में नोट करें।
- कमजोर विकल्पों को हटा दें – यदि आप किसी टॉपिक पर एक मिनट में कम से कम 4–5 दृष्टिकोण नहीं सुझा सकते, तो उस टॉपिक को छोड़ दें।
यह प्रक्रिया क्यों प्रभावी है:
मर्लिन काट्ज़ ने अपने आलेख “फ्रॉम सेल्फ-एनालिसिस टू अकादमिक एनालिसिस: एन एप्रोच टू एक्सपोजिटरी राइटिंग” (कॉलेज इंग्लिश, 1978, वॉल्यूम. 40, नंबर 3, नवंबर 1978, पृष्ठ 288-292) में यह तर्क प्रस्तुत किया है कि लेखन पूर्व आत्म-विश्लेषण (self-analysis) करने से आलेख की गहनता एवं तार्किकता में वृद्धि होती है। यद्यपि, परीक्षा जैसी सीमित समयावधि की परिस्थितियों में यह विश्लेषण संक्षिप्त एवं केंद्रित होना चाहिए,और इसी कारण 10 मिनट का नियम अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है।
चरण 2: विषयगत जागरूकता
UPSC निबंध प्रश्नों का चयन प्रायः कुछ विशिष्ट विषय-वर्गों में ही किया जाता है, जो बार-बार परीक्षा में देखे गए हैं। इन प्रमुख आठ श्रेणियों को समझना और उनके लिए पूर्व तैयारी करना एक कुशल अभ्यर्थी की रणनीति का अभिन्न हिस्सा होता है:
- दर्शन एवं नीतिशास्त्र
- शासन एवं नेतृत्व
- सामाजिक मुद्दे एवं लैंगिक न्याय
- अर्थव्यवस्था एवं विकास
- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
- पर्यावरण एवं संधारणीयता
- इतिहास एवं संस्कृति
- प्रेरणा एवं मनोविज्ञान
एक सजग अभ्यर्थी परीक्षा से पूर्व प्रत्येक थीम के लिए मानसिक रूप से रूपरेखा का अभ्यास करता है – ताकि परीक्षा कक्ष में उसका मस्तिष्क तनाव में कुछ नया सोचने के बजाय केवल स्मरण भाव में रहे।
अमीराली मिनबाशियन, गेल एफ. ह्यून एवं केविन डी. बर्ड ने अपने शोध “एप्रोचेज टू स्टडीयिंग एंड एकेडमिक परफॉरमेंस इन शॉर्ट-एसे” (हायर एडुकेशन, खंड 47, संख्या 2, मार्च 2004, पृष्ठ 161-176) में यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया कि परिचित पैटर्न से अभ्यर्थी के संज्ञानात्मक भारांक में कमी आती है, जिससे कंटेंट एवं परिवर्तनों में मौलिकता के लिए मानसिक ऊर्जा प्राप्त होती है।
चरण 3: अमूर्त बनाम समकालीन टॉपिक की समझ
UPSC अपने निबंध प्रश्न पत्र में टॉपिक का एक संतुलित मिश्रण प्रस्तुत करता है , जहाँ एक ओर कुछ टॉपिक पूर्णतः दार्शनिक या अमूर्त हो सकते हैं (जैसे — “जो लोग इधर-उधर घूमते हैं, आवश्यक नहीं कि वे सभी भटके हुए ही हों”), वहीं दूसरी ओर कुछ टॉपिक पूर्णतः नीति निर्देशात्मक होते हैं (जैसे — “सोशल मीडिया FOMO को बढ़ावा दे रहा है”)।
एक जागरूक अभ्यर्थी टॉपिक का चयन निम्नलिखित आधारों पर करता है:
- यदि अभ्यर्थी की रूपकात्मक सोच (metaphorical thinking), अंतःविषयक दृष्टिकोण (interdisciplinary perspective) एवं दार्शनिक गहनता में दक्षता है, तो वह दार्शनिक अथवा अमूर्त टॉपिक को चुनना अधिक उपयुक्त मानता है।
- यदि अभ्यर्थी की समसामयिक घटनाओं, नीतियों और सरकारी पहलों में मजबूत पकड़ है, तो वह नीतिपरक या समसामयिक टॉपिक को वरीयता देता है।
परंतु यहाँ एक महत्वपूर्ण बिंदु है:
अमूर्त टॉपिक को वास्तविक उदाहरणों से ठोस और व्यावहारिक रूप दिया जा सकता है, और इसी प्रकार समसामयिक टॉपिक को दार्शनिक संदर्भों से समृद्ध व गहन बनाया जा सकता है। यही संतुलन एक निबंध को साधारण से उत्कृष्ट बनाता है।
चरण 4: स्व-परीक्षण मैट्रिक्स
टॉपिक चयन को अंतिम रूप देने से पूर्व, एक दक्ष अभ्यर्थी उसे पांच त्वरित प्रश्नों की कसौटी पर परखता है:
- क्या मैं इस टॉपिक को अपनी भाषा में सरलता से स्पष्ट कर सकता हूँ?
- क्या मेरे पास 5–6 अलग-अलग दृष्टिकोण (आयाम) उपलब्ध हैं?
- क्या इनमें से कम से कम 4 दृष्टिकोणों के लिए मेरे पास ऐतिहासिक एवं समसामयिक उदाहरण हैं?
- क्या मैं पूरे निबंध में संतुलित एवं विवेकपूर्ण भाषा बनाए रख सकता हूँ?
- क्या मैं इस टॉपिक पर 90 मिनट तक लेखन में रुचि एवं मनोबल बनाए रख सकता हूँ?
यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ में है, तो उस टॉपिक को चयनित करना उचित होगा।
यदि एक या अधिक प्रश्नों में संशय है, तो बेहतर होगा कि आप विकल्पों पर पुनर्विचार करें।
चरण 5: एक प्रबुद्ध अभ्यर्थी की तरह योजना बनाना – ‘छाया और वृक्ष’ उदाहरण
अब तक हमने टॉपिक चयन, मूल्यांकन और विषयगत समझ की बात की। अब आइए इसे एक उदाहरण पर लागू करते हैं:
“आज कोई व्यक्ति छाया में बैठा है क्योंकि किसी ने बहुत पहले एक वृक्ष लगाया था।”
यह टॉपिक UPSC के लिए उपयुक्त एक दार्शनिक-दृष्टिकोण वाला निबंध है, जो दूरदर्शिता, उत्तरदायित्व एवं पीढ़ियों के बीच उत्तराधिकार जैसे विचारों को समाहित करता है। आइए इसे तीन मुख्य उपचरणों में समझते हैं:
चरण 5.1 – मुख्य संदेश की व्याख्या
- वृक्षारोपण = दूरदर्शी कार्य, जिसमें तात्कालिक लाभ की अपेक्षा नहीं होती।
- वर्तमान में छाया = ऐसे लाभ, जो प्रायः भविष्य में दूसरों द्वारा प्राप्त किए जाते हैं।
- दार्शनिक सार:
- निःस्वार्थता,
- विरासत,
- अंतर-पीढ़ी उत्तरदायित्व
चरण 5.2 – विभिन्न दृष्टिकोणों की सूची बनाना (2 मिनट)
- दर्शन :
- भगवद गीता का कर्मयोग, लोकसंग्रह (सामूहिक कल्याण के लिए कर्म)।
- संत और विचारक जिनकी सेवा व्यक्तिगत स्वार्थ से परे थी।
- इतिहास:
- स्वतंत्रता संग्राम में बलिदान देने वाले महापुरुष,
- सामाजिक सुधारकों (जैसे राजा राममोहन राय) का कार्य,
- नीति निर्माताओं की दीर्घकालिक दृष्टि (जैसे नेहरू की संस्थाएं)।
- शासन एवं प्रशासन:
- संविधान
- संस्थाएं
- प्रमुख योजनाएं।
- अर्थव्यवस्था:
- बुनियादी ढांचा निवेश (जैसे सड़क, रेलवे),
- हरित निवेश एवं सस्टेनेबल डेवलपमेंट के मॉडल।
- विज्ञान एवं तकनीक:
- इसरो,
- वैक्सीन अनुसंधान
- पर्यावरण:
- वास्तविक वृक्षारोपण
- वनरोपण अभियान
- प्रति-दृष्टिकोण :
- राजनीति में अल्पकालिकता
- व्यापार
- सोशल मीडिया संस्कृति
चरण 5.3 – संरचना का चयन
इस निबंध हेतु एक चार-भागीय भूमिका (हुक, ब्रिज, स्पष्टीकरण, थीसिस) एवं PEEL पद्धति (बिंदु-व्याख्या-साक्ष्य-लिंक) पर आधारित मुख्य पैराग्राफ की संरचना उपयुक्त रहेगी:
चरण 6: निबंध का निर्माण
6.1 परिचय –
हुक → ब्रिज → स्पष्टीकरण → थीसिस।
- हुक: एक प्रभावशाली उद्धरण, लोकोक्ति,व्यक्तित्व या यथार्थ घटना
- ब्रिज: इस उद्धरण को व्यापक दार्शनिक संदर्भ से जोड़ना।
- स्पष्टीकरण: रूपक को स्पष्ट करना।
- थीसिस: संक्षेप में यह दर्शाना कि निबंध किस दिशा में जाएगा:”निःस्वार्थ एवं दूरदर्शी कार्य वे नींव हैं, जिन पर समाज की स्थायित्व पूर्ण उन्नति संभव होती है।”
6.2 मुख्य अनुच्छेद –
विषयगत, अंतर्अनुशासनात्मक
प्रत्येक अनुच्छेद एक अलग दृष्टिकोण को सामने लाता है एवं उसमें तर्क, उदाहरण तथा स्पष्टता का संतुलन होता है। PEEL पद्धति (बिंदु-व्याख्या-साक्ष्य-लिंक) का पालन करें।
उदाहरण:
- दार्शनिक आधार (गीता, पौराणिक कथाएँ)।
- ऐतिहासिक आधार (स्वतंत्रता संग्राम, सुधार)।
- संस्थाएं एवं शासन (संविधान, नीतियां)।
- नैतिकता एवं सार्वजनिक सेवा (सिविल सेवा लोकाचार)।
- चुनौतियाँ/प्रति-दृष्टिकोण (अल्पकालिकतावाद)।
6.3 निष्कर्ष –
नए शब्दों में सारांशित करें, वर्तमान से लिंक करे एवं भविष्य-दृष्टिकोण के साथ छोड़ें।
चरण 7: परीक्षक मनोविज्ञान
जेम्स होएटकर और गॉर्डन ब्रॉसेल ने “कॉलेज के नए छात्रों के लेखन प्रदर्शन पर निबंध विषयों में व्यवस्थित विविधताओं के प्रभाव” (कॉलेज कंपोज़िशन एंड कम्युनिकेशन, खंड 40, अंक 4, दिसंबर, 1989, पृष्ठ 414-421) में दर्शाया है कि स्पष्टता, संरचना एवं प्रवाह, अलंकारिक भाषा की तुलना में अंक प्राप्त करने वालों के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। यूपीएससी के शब्दों में:
- स्पष्टता → एक सामान्य पाठक के लिए समझने योग्य।
- संरचना → विचारों की तार्किक प्रगति।
- प्रवाह → अनुच्छेदों के बीच प्राकृतिक संक्रमण हों — ऐसा न लगे कि विचारों में अचानक बदलाव आने लगी हो।
एक प्रबुद्ध अभ्यर्थी परीक्षक की थकी हुई आंखों के लिए लिखता है , जिससे पढ़ना आसान हो जाता है।
बस, योजना बन गई। अब इसे अमल में लाना है।
मॉडल निबंध
“आज कोई छाया में बैठा है क्योंकि किसी ने बहुत समय पहले एक वृक्ष लगाया था।”
भारत की प्रचंड ग्रीष्म ऋतु के दोपहर में, एक अकेला यात्री बरगद के वृक्ष की छाया में कुछ क्षणों का विश्राम करता है। वहाँ की वायु अपेक्षाकृत शीतल है, जो कड़ी धूप भी कुछ शीतल प्रतीत होती है। दशकों वर्ष पूर्व किसी अज्ञात व्यक्ति ने इस वृक्ष को यह जाने बगैर लगाया था कि इसकी छाया कब, किसे और कैसे आश्रय प्रदान करेगी। यह सरल-सा प्रतीत होने वाला कृत्य एक गूढ सत्य को उजागर करता है —वर्त्तमान में हम जिन मूलभूत सुविधाओं एवं मूल्यों को सहजता से प्राप्त करते हैं, जैसे स्वतंत्रता, शिक्षा, सड़क, अथवा स्वच्छ जल, वे सब उन निर्णयों, प्रयासों एवं त्यागों की परिणति हैं जो ऐसे व्यक्तियों द्वारा किए गए हैं, जिनका नाम हम शायद कभी न जान सके। उन्होंने तात्कालिक लाभ या मान्यता के लिए नहीं, अपितु भावी पीढ़ियों के कल्याण एवं समाज की सतत प्रगति की भावना से प्रेरित होकर कार्य किया।
दर्शन, शासन एवं दैनिक जीवन—तीनों ही क्षेत्रों में समाज का भविष्य उन दूरदर्शी, निस्वार्थ और धैर्यशील व्यक्तियों पर टिका होता है जो ऐसे ‘वृक्ष’ लगाते हैं—चाहे वे भौतिक हों या प्रतीकात्मक—जिनकी छाया आने वाली पीढ़ियाँ प्राप्त करती हैं। यह निबंध इस केंद्रीय सिद्धांत की पड़ताल करता है कि किस प्रकार यह विचार हमारे ऐतिहासिक संघर्षों को दिशा प्रदान करता है, लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ करता है, एवं समकालीन नीतिगत विकल्पों को आकार प्रदान करता है। साथ ही यह दर्शाता है कि यह सोच भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना में कैसे गहराई से समाहित है—जहाँ प्राचीन ग्रंथों एवं परंपराओं ने सदियों से व्यक्ति को तात्कालिक फल की कामना से परे, व्यापक कल्याण हेतु कर्म करने का आह्वान किया है।
प्राचीन भारतीय दर्शन ने सदैव ऐसे कर्म के सिद्धांत को महत्व दिया है, जो निस्वार्थ हो, दीर्घकालिक दृष्टि से प्रेरित हो, एवं तत्काल फल की अपेक्षा से मुक्त हो। भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं — “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” — अर्थात, मनुष्य का अधिकार केवल अपने कर्तव्य-पालन पर है, न कि उसके फल पर। यह सूत्र भारतीय चेतना में गहराई तक व्याप्त है और व्यक्ति को प्रेरित करता है कि वह समाज तथा दूसरों के कल्याण के लिए कर्म करे, भले ही उसके परिणाम तत्काल दृष्टिगोचर न हों। इस प्रकार की सोच केवल आध्यात्मिक या धार्मिक नहीं है, अपितु यह सार्वजनिक सेवा, नीति निर्माण एवं दीर्घकालिक सामाजिक निवेश जैसे क्षेत्रों में भी व्यावहारिक रूप से लागू होती है।
“लोकसंग्रह” अर्थात सभी के कल्याण के लिए कार्य करने की भावना, भारतीय सांस्कृतिक एवं दार्शनिक परंपरा में अनवरत प्रकट होती है। यह केवल एक नैतिक आदर्श नहीं अपितु भारतीय चिंतन की एक गहरी सामाजिक चेतना है। पौराणिक कथाओं में, जैसे कि गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए राजा भगीरथ की तपस्या, यह भाव स्पष्ट रूप से झलकता है। उनका प्रयास केवल व्यक्तिगत मुक्ति हेतु नहीं था अपितु समूची मानवता एवं आने वाली पीढ़ियों के हित में था। इसी प्रकार पंचतंत्र की कथाओं में वृक्षों को निस्वार्थ सेवा के प्रतीक के रूप में दर्शाया गया है जो बगैर किसी प्रतिफल की अपेक्षा के फल, छाया एवं आश्रय प्रदान करते हैं। ये कहानियाँ केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं, अपितु वे धैर्य, त्याग एवं उदारता जैसे नैतिक मूल्यों को सहज रूप से संस्कारित करती हैं। यही मूल्य आगे चलकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम की वैचारिक आधार बने। जिस प्रकार एक वृक्ष अपरिचितों को छाया प्रदान करता है, उसी प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने अपने लिए नहीं अपितु उस राष्ट्र के लिए संघर्ष किया जिसे वे संभवतः पूरी तरह देख भी नहीं पाए।
भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने आप में भविष्य के लिए एक दीर्घ, धैर्यपूर्ण बीजारोपण था। स्वतंत्रता सेनानियों को पता था कि वे शायद कभी वे सारे बदलाव नहीं देख पाएँगे जिनका उन्होंने सपना देखा था, फिर भी वे डटे रहे।
भारत का स्वतंत्रता संग्राम स्वभावतः भविष्य के लिए एक दीर्घकालिक एवं धैर्यपूर्ण बीजारोपण था। स्वतंत्रता सेनानियों को यह स्पष्ट था कि वे संभवतः उन सभी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिवर्तनों का साक्षी नहीं बन पाएंगे जिनका उन्होंने सपना देखा था, फिर भी उन्होंने अडिग रहकर अपना कार्य किया। महात्मा गांधी के अहिंसात्मक प्रतिरोध ने राष्ट्र के लिए एक नैतिक आधारशिला स्थापित की। जवाहरलाल नेहरू के औद्योगीकरण तथा आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक को बढ़ावा देने के दृष्टिकोण ने प्रगति के ऐसे बीज बोए, जिन्हें पल्लवित होने में दशकों का समय लगा। डॉ. बी. आर. अंबेडकर के संविधान निर्माण के अथक प्रयासों ने अधिकारों, न्याय और समानता की मजबूत नींव रखी। सावित्रीबाई फुले जैसे समाज सुधारकों ने महिला शिक्षा के लिए संघर्ष किया एवं जातिगत भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई, जिससे न्याय एवं अवसर की खेती संभव हुई।
उनका प्रयास क्षणिक ज्वाला नहीं था, अपितु न्याय एवं समानता की ओर एक धीमी और स्थिर प्रगति का अभिन्न अंग था—एक ऐसी प्रगति जिसे जीवित रहने के लिए मजबूत जड़ों तथा सतत देखभाल की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, इन दूरदर्शी सुधारकों की सोच को लोकतांत्रिक संस्थानों में संरचना और संरक्षण प्रदान किया गया।
यदि संविधान को भारत के लोकतांत्रिक वृक्ष का तना माना जाए, तो उसकी शाखाएँ वे संस्थाएँ हैं जो उनकी सुरक्षा एवं पोषण का कार्य करती हैं। चुनाव आयोग निष्पक्ष तथा स्वतंत्र चुनावों को सुनिश्चित करता है; सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की संरक्षण करता है; तथा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) सार्वजनिक वित्तीय संसाधनों के उचित उपयोग एवं जवाबदेही पर निगरानी रखता है।
इन संस्थाओं को तात्कालिक प्रभाव के लिए नहीं, अपितु दीर्घकालिक स्थिरता, न्याय तथा जनता के विश्वास को बनाए रखने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। इनका वास्तविक मूल्य समय के साथ परखा जाता है, जब वे लोकतंत्र की मजबूती एवं सुव्यवस्था सुनिश्चित करती हैं।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, मनरेगा एवं उज्ज्वला योजना जैसे सरकारी कार्यक्रम भले ही तात्कालिक रूप से क्रांतिकारी परिवर्तन न लाएँ, परंतु ये छोटे-छोटे पौधों की भांति निरंतर विकसित होते हैं और वर्षों के संघर्ष से आम जनता के जीवन में सुधार लाते हैं। इसी प्रकार, स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग, ग्रामीण विद्युतीकरण और मेट्रो रेल नेटवर्क जैसी प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाएँ छायादार वृक्षों की भाँति हैं, जिनके फल और लाभ समय के साथ अधिकाधिक प्रकट होते हैं।
जिस प्रकार सामाजिक एवं भौतिक संरचनाओं को परिपक्व होने में वर्षों लगते हैं, उसी प्रकार विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा स्थिरता के क्षेत्र में प्रगति भी धैर्य, दूरदर्शिता एवं निरंतर प्रयास की मांग करती है। प्रत्येक उपलब्धि इन गुणों का परिणाम होती है। यह तथ्य हमें स्मरण कराता है कि आधुनिक युग में ‘वृक्षारोपण’ केवल खेतों और जंगलों तक सीमित नहीं है, अपितु यह प्रयोगशालाओं, अनुसंधान केंद्रों तथा नीति निर्धारण के क्षेत्र में भी समान रूप से होता है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में भारत का निवेश दूरदर्शिता की सबसे प्रत्यक्ष मिसालों में से एक है। हरित क्रांति किसी एकाएक हुए बदलाव का परिणाम नहीं थी, अपितु यह वर्षों के सतत अनुसंधान, नीति समर्थन एवं किसानों के प्रशिक्षण का फल थी। वर्तमान में भारत, दशकों पहले बोए गए उन बीजों के कारण, खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर चुका है।
इसरो के अंतरिक्ष अभियानों, जैव प्रौद्योगिकी में प्रगतियों एवं डिजिटल बुनियादी ढांचे के विस्तार को भी धैर्य से लगाए गए उन ‘वृक्षों’ के रूप में देखा जा सकता है। मौसम पूर्वानुमान से लेकर टेलीमेडिसिन तक, इन तकनीक के लाभ आने वाले वर्षों में निरंतर बढ़ते रहेंगे एवं समाज के व्यापक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देंगे।
पर्यावरणीय प्रयास भी इसी दीर्घकालिक दृष्टिकोण का परिचायक हैं। वनीकरण परियोजनाएँ, सौर ऊर्जा पार्क, पवन ऊर्जा संयंत्र एवं नमामि गंगे मिशन का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अगली पीढ़ी को स्वच्छ वायु, शुद्ध जल एवं सतत जलवायु की विरासत प्राप्त हो। इस संदर्भ में वृक्षारोपण रूपक न केवल प्रतीकात्मक अपितु शाब्दिक रूप से भी सटीक है। हम पर्यावरण संरक्षण हेतु वर्तमान में किए गए कार्यों एवं भविष्य की सुरक्षा के बीच गहरा संबंध देखते हैं—जिसमें मिट्टी में पेड़ लगाना और आशा के बीज बोना शामिल है। परन्तु इस आशा की रक्षा निरंतर देखभाल की मांग करती है, और इसकी मुख्य उत्तरदायित्व उन अधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं पर होती है जो शासन तंत्र के भीतर निष्ठापूर्वक कार्यरत हैं।
सिविल सेवक प्रायः माली की भूमिका निभाते हैं , जो ऐसी नीतियों तथा योजनाओं की देखभाल करते हैं जिनके पूर्ण परिणाम उन्हें स्वयं कभी देखने को न मिलें। उनके कार्य में सत्यनिष्ठा, निरंतरता एवं व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर जनहित के प्रति गहरी प्रतिबद्धता आवश्यक होती है। एक प्राचीन भारतीय कहावत है—‘वृक्ष फल नहीं खाता, नदी जल नहीं पीती’, जो निस्वार्थ सेवा की भावना का प्रतीक है, जहाँ लाभ स्वयं से नहीं अपितु समाज के अन्य सदस्यों तक पहुँचता है। एक और प्रसिद्ध कहावत ‘कल के लिए आज बो दो’ हमें यह स्मरण कराती है कि सच्चा और ईमानदार शासन भविष्य के विश्वास एवं सामाजिक संधारणीयता के बीज बोता है।
फिर भी, वर्तमान में वैश्विक स्तर पर नैतिकता गंभीर दबाव में है। राजनीति प्रायः ऐसी नीतियों को प्राथमिकता देती है जो आगामी चुनाव से पूर्व तत्काल परिणाम दिखा सकें, भले ही वे दीर्घकालिक एवं गहन सुधारों को नजरअंदाज कर दें। व्यावसायिक क्षेत्र में तिमाही लाभ प्रायः सतत प्रथाओं की तुलना में अधिक महत्व रखता है। वहीं, सोशल मीडिया तत्काल मान्यता की अभिलाषा को बढ़ावा देता है, यद्यपि उपभोक्ता संस्कृति इस सोच को प्रोत्साहित करती है कि तत्काल उपलब्धि सर्वथा श्रेष्ठ होती है।
चेतावनी के संकेतों को नजरअंदाज करना कठिन है: जब तात्कालिक लाभ के लिए भविष्य का बलिदान किया जाता है, तो इसकी कीमत प्रायः अपरिवर्तनीय होती है। अल्पकालिक लाभ हेतु वनोन्मूलन या तत्काल उपयोग के लिए जल स्रोत का निम्नीकरण ऐसे घाव छोड़ जाते हैं जिन्हें भरने में दशकों, यहाँ तक कि सदियों लग जाते हैं। यही कारण है कि धैर्यपूर्वक वृक्षारोपण एवं त्वरित उन्मूलन के बीच का विकल्प केवल व्यक्तिगत पसंद का विषय नहीं, अपितु किसी भी समाज की दूरदर्शिता एवं समझदारी की निर्णायक परीक्षा है।
धैर्य क्यों विजयी होता है?
इतिहास स्पष्ट रूप से गवाह है कि सतत प्रगति दूरदर्शिता, धैर्य एवं निस्वार्थता के समन्वय से ही संभव होती है। लोकतंत्र उन नेताओं एवं नागरिकों के कारण सुदृढ़ होता है जो अपने वर्तमान जीवन से परे सोचते हैं और आने वाली पीढ़ियों के कल्याण हेतु कार्य करते हैं। वैज्ञानिक सफलताएँ इसलिए मिलती हैं क्योंकि शोधकर्ता वर्षों, कई दशकों तक गहन अनुसंधान करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप समय के साथ फलदायी खोजें सामने आती हैं। आज हम जिन सुख-सुविधाओं एवं अधिकारों का लाभ उठा रहे हैं, वे इसी धैर्य तथा दूरदर्शिता का सजीव प्रमाण हैं। हमारा दायित्व है कि हम इस विरासत को संरक्षित एवं मजबूत बनाएं, भले ही इसके लिए तत्काल सफलता के मोह को त्यागना पड़े।
संक्षेप में, आज जिस छाया में हम विश्राम कर रहे हैं, वह उन विचारकों, निर्माताओं, सुधारकों एवं सामान्य नागरिकों की देन है जिन्होंने धैर्य एवं दूरदर्शिता के साथ अपना योगदान दिया। भगवद् गीता के गहन ज्ञान से लेकर संविधान की दूरदर्शी रचना तक, स्वतंत्रता संग्राम के संघर्षों से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों तक, भारत की यह कहानी जनहित के लिए निरंतर ‘वृक्षारोपण’ की कथा है।
इस महान विरासत को आगे बढ़ाने के लिए हमें सदैव स्मरण रखना होगा कि वृक्ष लगाना—चाहे वह भौतिक हो या प्रतीकात्मक—एक आशा एवं विश्वास का कार्य है, यह विश्वास कि भविष्य महत्वपूर्ण है, भले ही हम स्वयं उसका आनंद लेने के लिए उपस्थित न हों। सच्चा नागरिक, सच्चा सरकारी कर्मचारी या नेता वही है जो इस सत्य को समझते हुए कार्य करता है कि वह स्वयं शायद कभी उस छाया का लाभ न उठा सके, परन्तु उसे पूर्ण विश्वास होता है कि किसी न किसी दिन कोई व्यक्ति उस छाया में विश्राम करेगा।
भविष्य के लिए हम जो सर्वोत्तम उपहार छोड़ सकते हैं, वह है संधारणीयता, सुरक्षा एवं अवसर, जो दूसरों को सपने देखने और उन्हें साकार करने का अवसर प्रदान करें—ठीक वैसे ही जैसे बहुत पहले किसी ने हमारे लिए बरगद के वृक्ष की छाया छोड़ी थी।
यह निबंध एक मॉडल उदाहरण क्यों है?
“कोई छाया में बैठा है…” निबंध इसलिए मॉडल की भांति काम करता है क्योंकि इसमें वे सभी गुण मौजूद हैं जिन्हें UPSC परीक्षक महत्व देते हैं — और यह उस चयन, योजना एवं संरचना की प्रक्रिया का पालन करता है जिसे एक प्रबुद्ध अभ्यर्थी सीमित समय में अपनाता है।
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बुद्धिमत्तापूर्ण टॉपिक चयन
शुरुआत में एक सक्षम अभ्यर्थी अन्य टॉपिक से इस टॉपिक की तुलना स्वयं-जांच मैट्रिक्स के माध्यम से करता है। यह रूपक आधारित टॉपिक:
- विभिन्न दृष्टिकोणों की अनुमति देता है– दर्शन, इतिहास, शासन, अर्थव्यवस्था, विज्ञान, पर्यावरण एवं नैतिकता।
- यथार्थ विश्व के उदाहरणों पर आधारित तर्कों के साथ-साथ मौलिक व्याख्या के लिए स्थान प्रदान करता है ।
- अंतर्अनुशासनात्मक सोच को बढ़ावा देता है, जिसे UPSC विशेष रूप से महत्व देता है।
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मूल संदेश की स्पष्ट व्याख्या
यह निबंध रूपक का विश्लेषण करता है:
- वृक्षारोपण = दूरदर्शी, निस्वार्थ कर्म।
- छाया = लाभ जो आने वाले समय में, प्रायः दूसरों द्वारा प्राप्त किया जाता है।
इस स्पष्टता से परीक्षक को पहले पैराग्राफ से ही यह पता चल जाता है कि अभ्यर्थी ने टॉपिक की गहन समझ प्राप्त कर ली है — यह वह बिंदु है जिसे जेम्स होएटकर और गॉर्डन ब्रॉसेल के 1989 के अध्ययन में उच्च अंक प्राप्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बताया गया है।
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सशक्त प्रस्तावना संरचना
निबंध का प्रारंभिक पैराग्राफ चार स्तरों पर कार्य करता है:
- हुक -एक जीवंत दृश्य से ध्यान आकर्षित करता है (बरगद के वृक्ष की छाया में विश्राम करता हुआ यात्री)।
- ब्रिज -दार्शनिक अर्थ की ओर सहजता से ले जाता है।
- व्याख्या-रूपक को सरल भाषा में स्पष्ट करता है।
- थीसिस-एक थीसिस कथन के साथ समाप्त होता है, जो पूरे निबंध की दिशा एवं विस्तार को संकेत करता है।
यह ‘हुक – ब्रिज – व्याख्या – थीसिस’ प्रारूप निबंध की शुरुआत को आत्मविश्वासी और संगठित बनाता है।
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विषय-आधारित संगठन एवं PEEL पद्धति का प्रयोग
निबंध की मुख्य विषयवस्तु एक स्पष्ट एवं सुव्यवस्थित प्रवाह का अनुसरण करती है:
- दार्शनिक आधार – गीता, लोकसंग्रह, पौराणिक कथाएँ।
- ऐतिहासिक आधार – स्वतंत्रता संग्राम, समाज सुधारक।
- संस्थाएं एवं शासन – संविधान, जनकल्याणकारी योजनाएँ।
- विज्ञान, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण – इसरो, हरित क्रांति, वनरोपण।
- नैतिकता एवं लोक सेवा – माली के रूप में सिविल सेवक।
- प्रति-दृष्टिकोण – अल्पकालिकता के खतरे।
प्रत्येक पैराग्राफ PEEL पद्धति (बिंदु – व्याख्या – प्रमाण – लिंक) का पालन करता है, जिससे तर्क की गहराई, सुसंगतता एवं स्वाभाविक प्रवाह सुनिश्चित होता है। यह शैली निबंध को खण्ड में बँटे “पैचवर्क” जैसा होने से बचाती है और एकीकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।
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समृद्ध, विविध साक्ष्य
निबंध में निम्नलिखित उदाहरण दिए गए हैं:
- धार्मिक ग्रंथ – भगवत गीता का संदेश।
- किंवदंती – राजा भगीरथ की कथा।
- इतिहास – महात्मा गांधी, नेहरू, डॉ. अंबेडकर, सावित्रीबाई फुले।
- संस्थागत ढांचे – चुनाव आयोग, सर्वोच्च न्यायालय।
- नीति – शिक्षा का अधिकार, मनरेगा, उज्ज्वला योजना।
- विज्ञान एवं पर्यावरण – इसरो, हरित क्रांति, नमामि गंगे अभियान।
इस प्रकार की विविधता न केवल जानकारी की परिपक्वता को दर्शाती है, अपितु यह भी दर्शाती है कि अभ्यर्थी विभिन्न संदर्भों को जोड़कर गहराई से सोचने एवं लेखन में समग्र दृष्टिकोण अपनाने में सक्षम है।
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संतुलित स्वर एवं प्रति-दृष्टिकोण
निबंध केवल आदर्शवाद या एकतरफा आशावाद नहीं दर्शाता, अपितु इसमें यथार्थता का संतुलित मूल्यांकन भी शामिल है। इसमें यह स्वीकार किया गया है कि—
- राजनीतिक अल्पकालिकता
- वातावरणीय निम्नीकरण।
- आधुनिक जीवन में तात्कालिक संतुष्टि का आकर्षण, यह संतुलन परिपक्वता को दर्शाता है — एक ऐसा प्रमुख गुण जो UPSC भावी प्रशासकों में चाहता है।
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सुनियोजित एवं सहज प्रवाह
इस निबंध की एक बड़ी विशेषता इसकी प्राकृतिक एवं तार्किक संरचना है, जिसमें एक खंड से दूसरे खंड में सामंजस्यपूर्ण रूप से संक्रमण किया गया है। ऐसा लेखन न केवल पढ़ने में सरल होता है, अपितु परीक्षक को यह स्पष्ट संकेत देता है कि लेखक ने अपने विचारों को सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया है।
उदाहरण के रूप में:
जब निबंध में सामाजिक सुधारकों से चर्चा करते हुए लोकतांत्रिक संस्थाओं की ओर बढ़ता है, तो यह संक्रमण यथार्थ एवं अर्थपूर्ण प्रतीत होता है — मानो संस्थाएँ उन्हीं सुधारात्मक प्रयासों की स्वाभाविक निरंतरता हों। इस प्रकार का सतत नैरेटिव फ्लो यह सुनिश्चित करता है कि निबंध किसी “विचारों के पैचवर्क” जैसा बिखरा हुआ न लगे, अपितु एक सुसंगत कथा की भांति आगे बढ़े — जो UPSC के उच्च स्तरीय मूल्यांकन मानकों के अनुरूप है।
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संक्षिप्त किन्तु दूरदर्शी निष्कर्ष
इस निबंध का अंत प्रभावशाली एवं उद्देश्यपूर्ण है क्योंकि यह:
- थीसिस को नए शब्दों में पुनः प्रस्तुत करता है।
- मुख्य बिंदुओं का सारांश प्रस्तुत करता है।
- एक दूरदर्शी एवं सेवा-प्रधान आह्वान के साथ समाप्त होता है। यह निष्कर्ष परीक्षक को एक पूर्णता तथा उद्देश्य की अनुभूति कराता है।
संक्षेप में, यह मॉडल निबंध प्रभावी है क्योंकि इस:
- टॉपिक का चयन रणनीतिक रूप से किया गया है, जो लेखक की शक्ति को दर्शाता है।
- टॉपिक की गहन समझ के साथ लेखन शुरू किया गया है।
- सिद्ध एवं व्यवस्थित संरचना का पालन किया गया है।
- बहुविषयक और संतुलित दृष्टिकोण अपनाया गया है।
- PEEL विधि एवं सहज संक्रमण के साथ प्रवाह बनाया गया है।
- उदाहरणों से समृद्ध एवं भाषा में सरलता।
यह वह गुण है जिसे UPSC मूल्यवान मानता है — एवं परीक्षा के दौरान एक प्रबुद्ध अभ्यर्थी भी इसे ही प्राप्ति करने का प्रयास करेगा।
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